पलामू:
पलामू के प्रतापी चेरो आदिवासी राजा मेदिनी राय की स्मृति में करीब तीन दशक से लग रहे ऐतिहासिक दुबियाखांड़ मेला की शुरूआत शुक्रवार को हो गयी। दो दिवसीय मेला 12 फरवरी तक चलेगा।
आयोजन समिति के उपाध्यक्ष मेदिनीनगर विधायक के सदर प्रखंड प्रतिनिधि ह्दया सिंह ने बताया कि मेदिनी वेलफेयर सोसाइटी मेला आयोजन में विशेष सहयोग कर रहा है। मेला में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले मैट्रिक और इंटर के छात्रों को अतिथियों के द्वारा सम्मानित किया गया। मेले में आगंतुकों के लिए मुख्य आकर्षण का केंद्र झूला, रेल इंजन, ब्रेक डांस, आदिवासी नृत्य के अलावे राजा मेदनीराय पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे।
मेदिनी राय सन् 1658 से 1674 तक झारखंड के पलामू के राजा थे। उन्होंने दक्षिण गया, हजारीबाग और सरगुजा पर अपना साम्राज्य विस्तार किया। उसने डोइसा में छोटानागपुर के नागवंशी महाराजा रघुनाथ शाह को हराया और अपने इनाम के साथ, उन्होंने आधुनिक सतबरवा के पास पलामू के दुर्ग में से एक किला का निर्माण कराया था।
मेले की शुरुआत की बात करें तो अविभाजित बिहार में राजस्व मंत्री रहे इंदर सिंह नामधारी ने कुंभ मेले की तर्ज पर पलामू जिला मुख्यालय डालटनगंज से करीब 10 किलोमीटर दूर दुबियाखांड़ में आदिवासी कुंभ मेले की अपनी परिकल्पना को साकार किया था। इस कड़ी में सबसे पहले 1994 में श्री नामधारी ने पलामू के बेहद लोकप्रिय राजा मेदिनीराय (इन्हीं के नाम पर डालटनगंज का नाम मेदिनीनगर पड़ा) की प्रतिमा दुबियाखांड़ में स्थापित करायी और इस स्थल पर हर वर्ष आदिवासी कुंभ मेले (राजस्व मेला) के आयोजन की घोषणा की। उसके बाद हर वर्ष राजा मेदिनीराय की स्मृति में 11-12 फरवरी को वृहद मेले का आयोजन होने लगा।
यह मेला आदिवासियों की पहचान के साथ-साथ उनकी संस्कृति को भी जिन्दा रखने में सहायक रहा है। झारखंड आदिवासियों की संघर्ष की भूमि रही है। राजा मेदिनीराय के संघर्ष को आज याद किया जाता है। राजा मेदिनी राय प्रतापी राजा हुआ करते थे। इनके राज्य में दूध-दही की नदी बहती थी। आज हम सब को उनके बताये रास्ते पर चलकर उनके सपने को साकार करने की जरूरत है। वे वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगरों का भ्रमण किया करते थे। कमी देखकर उसमें सुधार लाते थे। यही कारण है कि उनके जीवन पर एक कहावत आज पूरे पलामू जिले में प्रचलित है-‘धन्य-धन्य राजा मेदनिया, घर-घर बाजे मथनिया’।
पूर्व विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी के पुत्र दिलीप नामधारी ने सोशल मीडिया के माध्यम से झारखंड सरकार से इस मेले को राजस्व मेला का दर्जा देने की माँग की है। उन्होंने अपने फ़ेसबूक वॉल पर लिखा है कि – इस मेला को लगाने के पीछे आदरणीय पिता श्री इंदर सिंह नामधारी जी का उद्देश्य था कि गरीबों के बीच सरकार की तरफ से परिसंपत्तियों का वितरण करना जिससे आदिवासी समाज का उत्थान हो सके, परंतु यह मेला का अस्तित्व आज खतरे में है उसे कैसे बचाया जा सके इस पर वर्तमान जनप्रतिनिधियों को ध्यान देने की आवश्यकता है। यह ज्ञातव्य है कि अभी तक उक्त मेला को राजस्व मेला का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है। मैं माननीय मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन जी से मांग करता हूँ कि मेले के अस्तित्व को बचाए रखने हेतु इसको राजस्व मेला घोषित किया जाय।
ऐतिहासिक विरासतों को संजोये रखने में शासन-प्रशासन की कोई दिलचस्पी नहीं
राज्य सरकार प्रदेश की कला-संस्कृति और परंपराओं का अक्षुण्ण बनाये रखने का दंभ तो भरती है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसपर अमल भी होता है? दुबियाखांड़ मेले के सिमटते दायरे को देखकर तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि ऐतिहासिक विरासतों को संजोये रखने में शासन-प्रशासन की कोई दिलचस्पी है। जिन लोगों ने इस मेले का आरंभिक दौर देखा है, उन्हें तो अब यह मेला औपचारिकता मात्र ही प्रतीत होने लगा है। एक समय था जब इस मेले की भव्यता के चर्चे न केवल अपने राज्य में बल्कि दूसरे राज्यों में भी सुनाई पड़ती थी। लेकिन अब मेले का वह शोर स्मृति-शेष बनकर रह गया है।