Wednesday, October 9, 2024
HomeJharkhandझारखंड के वीरों की गाथा कहता है सेरेंगसिया घाटी का शहीद स्मारक

झारखंड के वीरों की गाथा कहता है सेरेंगसिया घाटी का शहीद स्मारक

सेरेंगसिया घाटी की लड़ाई पहली ऐसी लड़ाई थी जो आदिवासी "हो'' लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के मैदान में जीती थी। यह आदिवासी समुदाय की ओर से लड़ी गई पहली लड़ाई भी थी।

भारत की आज़ादी की कहानी झारखंड में हुए सेरेंगसिया विद्रोह की गाथा के बिना नहीं कही जा सकती है। सन १८५७ में हुए सिपाही विद्रोह की प्रेरणा कमोबेश यहीं से मिली थी। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सबसे पहला विद्रोह झारखंड की जनजातियों के द्वारा हुआ था।भारत की आज़ादी के इतिहास के अनुसार 1837 में झारखंड की “हो” जनजाति ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। जिसमें सैकड़ों अंग्रेज मारे गए थे और जो बचे थे अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए थे। इस विद्रोह में “हो” जनजाति के सरदार पोटो हो, देवी हो, बुगनी हो, बेराई हो,पाण्डव हो, बोड़ो हो और नारा हो की अहम भूमिका रही थी। सेरेंगसिया घाटी की लड़ाई पहली ऐसी लड़ाई थी जो आदिवासी “हो” लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के मैदान में जीती थी। यह आदिवासी समुदाय की ओर से लड़ी गई पहली लड़ाई भी थी। सेरेंगसिया विद्रोह के इन्हीं नायकों की याद में पश्चिम सिंहभूम के सेरेंगसिया घाटी में शहीद स्मारक बनाया गया है, जो आज़ादी के इन अमर बलिदानियों की गाथा कहता है।

कैसे हुआ सेरेंगसिया विद्रोह ?

The saga of the heroes of Jharkhand tells the martyr memorial of Serengsia Valley

‘‘हो” आदिवासियों ने अंग्रेजों को अपने जमीन पर कभी अधिकार नहीं करने दिया था।अंग्रेजी हुकूमत ने ‘हो’ आदिवासियों को नियंत्रित करने तथा सिंहभूम में अपना आधिपत्य जमाने के ख्याल से गवर्नर जनरल के एजेंट कैप्टन विलकिंसन के नेतृत्व में एक योजना बनाई। योजना के अनुसार क्षेत्र के लोगों को अधीन करने के उद्देश्य से पीढ़ के प्रधान मानकी एवं ग्राम के प्रधान मुंडा को अपना कूटनीतिक मोहरा बनाने का प्रयास किया। लेकिन वे सफल नहीं हो सके और कई जगहों पर अंग्रेजी हुकूमत को ‘‘हो’ छापामार लड़ाकों के आगे शिकस्त खानी पड़ी । ‘‘हो’ जनजाति के लड़ाकों के जुझारू तेवर को देखते हुए कैप्टन विलकिंसन ने इस क्षेत्र में एक सैन्य अभियान चलाया और 1837 तक कोल्हान क्षेत्र में प्रवेश किया। परंतु अंग्रेजों के इस घुसपैठ के बाद कोल्हान में महान योद्दा पोटो “हो” के नेतृत्व में एक भयंकर विद्रोह का ज्वालामुखी फूट पड़ा। पोटो “हो” के नेतृत्व में बनाए गए शहीदी जत्था द्वारा अंग्रेजों को इस क्षेत्र से खदेड़ने के लिए घने जंगलों में गुप्त सभाएं की जाने लगी जिसमें युद्ध की रणनीति बनाई जाती थी। उन्होंने कोल्हान को किसी भी सूरत में गुलामी की स्थिति में देखना ठीक नहीं समझा। इसीलिए युद्ध की रणनीति बनाने के लिए 21 से ज्यादा गांव के लोगों को जो बलंडिया, पोकम- राजा बसा, जगन्नाथपुर इत्यादि जगहों पर वे लोग लगातार बैठकें करके लोगों को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इकट्ठे किए। शहीदी जत्था का एकमात्र उद्देश्य राजनीतिक और आर्थिक बाहरी हस्तक्षेप से ‘हो’ आदिवासियों को सुरक्षित रखना और अंग्रेजों से इसका बदला लेना था, उन्हें कोल्हान से खदेड़ना था। कोल्हान में यह विद्रोह लालगढ़, अमला और बढ़ पीढ़ सहित सैकड़ों गाँवों में फैल गया और एक जन आन्दोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। इस विद्रोह में बलान्डिया के मरा, टेपो, सर्विल के कोचे, परदान, पाटा तथा डुमरिया के पांडुआ, जोटो एवं जोंको जैसे वीर इस स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए। स्वतंत्रता संग्राम की इस लड़ाई में गाँव के क़रीब 26 लड़ाके शहीद हुए थे।

The saga of the heroes of Jharkhand tells the martyr memorial of Serengsia Valley

हार से गुस्साये अंग्रेजों ने पूरे गाँव को जला डाला था

जब अंग्रेजों को इनकी रणनीति के बारे में जानकारी हुई तो कैप्टन आर्म स्ट्रांग को 400 पैदल सेना सात घुड़सवार और सरायकेला से 200 से ज्यादा सहायक के साथ दक्षिण की ओर से पोटो “हो” के अभियान को नियंत्रित करने के लिए भेजा। 19 नवम्बर 1837 को सुबह सेरेंगसिया गांव में अंग्रेजों की सेना ने मोर्चा संभाल लिया। सेरेंगसिया घाटी में जब अंग्रेज सेना पहुँची तो पहले से घात लगाये पोटो “हो” के शहीदी जत्था ने उन पर अचानक तीर-धनुष और गुलेल से आक्रमण कर दिया । दोनों ओर पहाड़ों से घिरी घाटी और जंगलों से पूर्ण होने के कारण ‘हो’ आदिवासियों को अंग्रेजों को हराने में दिक्कत नहीं हुई। सैकड़ों अंग्रेज मारे गए । अंग्रेजों को इस लड़ाई में भारी नुकसान उठाना पड़ा। हार से गुस्साये अंग्रेजों ने 20 नवम्बर 1837 को राजाबसा गाँव में आक्रमण कर दिया और पूरे गाँव को जला डाला। अंग्रेजी सेना ने पोटो “हो” के पिता एवं अन्य ग्रामीणों को गिरफ़्तार कर लिया परन्तु पोटो “हो” की गिरप्तारी में उन्हें सफलता नहीं मिली ।

महान योद्धा पोटो “हो” को “हो” जनजाति के लोगों ने ही पकड़वाया था

उसके बाद अंग्रेजी सेना ने रामगढ बटालियन से 300 सैनिकों को कोल्हान क्षेत्र में बुलाया। सैन्य शक्ति से परिपूर्ण होकर पुन: कोल्हान में स्वतंत्रता सेनानिओं को पकड़ने का अभियान चलाया गया। पोटो “हो” एवं सहयोगियों को (जिनकी संख्या क़रीब 2000 थी) पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने कई कूटनीतिक चालें चली और ग्रामीणों को प्रलोभन देकर मानकी मुंडा और “हो” समाज के कुछ लोगों को अपने वश में कर लिया। इन्हीं लोगों की मदद से अंग्रेजों ने पोटो “हो” का पता लगा लिया और उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया।

8 दिसम्बर 1837 को अंग्रेज़ी सेना पोटो “हो” और सहयोगी जत्था को गिरफ्तार कर लिया। 18 दिसम्बर 1837 को जगन्नाथपुर में इन आन्दोलनकारियों पर मुकदमा चलाया गया। मुक़दमे की सुनवाई ख़ुद कैप्टन विल्किंसन ने की । एक सप्ताह के अंदर यह मुकदमा 25 दिसम्बर 1837 को समाप्त हुआ और 31 दिसम्बर 1837 को मुकदमे का फैसला भी सुना दिया गया। 5 “हो” लड़ाकों को मौत की सजा एवं 79 “हो” लोगों को कारावास की विभिन्न सजाएं दी गई।

अंग्रेज चूंकि यह जानते थे पोटो हो और उनके सहयोगियो के जीवित रहते वे कोल्हान पर कभी भी स्थायी रूप से नहीं ठहर सकते, इसीलिए 1 जनवरी 1838 को विशाल जनसमूह के समक्ष जगन्नाथपुर में लोगों को आतंकित करने के लिए पोटोहो, नारा हो और डेबाय हो  को बरगद के पेड़ पर फांसी दे दिया गया। ठीक इसके अगले दिन 2 जनवरी 1838 की सुबह, बाकी बचे दोनों बोराय हो और पांडुआ हो को सेरेंगसिया गाँव में फांसी दे दिया गया।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments